Lockdown Me Marji Aur Majburi |
महामारी
फैली हुई थी किसी देश के लोग लॉकडाउन में मर्जी और मज़बूरी के
साथ अपना जीवन व्यापन कर रहे थे।
लेकिन कुछ लोग लॉकडाउन से परेशान थे,
काम से घर, घर
से काम पर, घर पर रहना, बाहर
न निकलना इन सब बंदिशों
से ऊबन होने लगी थी।
उनमे
से कवि (काल्पनिक नाम) एक था जिसे
पेरशानी थी। जिस कारण वह चिड़चिड़ा हो गया था।
एक दिन वह घर से कुछ सामान लेने के लिए बाहर निकला, उसे याद आया की सब्जी लेनी है।
सब्जी लेने के लिए वह एक सब्जी विक्रेता के पास गया। कुछ सब्जी और फलो के दाम उसने
पूछे, उसे दाम कुछ ज्यादा लगे।
कवि:
"इनके दाम कुछ ज्यादा बता रहे हो।"
विक्रेता:
"साहब दाम ज्यादा नहीं है आप को ऐसा लग रहा है।"
कवि: "तुम
लोगो को एक मौका मिल गया है फायदा उठा लो।" वो गुस्से से बोला।
विक्रेता:
"साहब ऐसी कोई बात नहीं है, मगर आप गुस्से में क्यों है।"
कवि: "तुम
लोगो को क्या पता चलेगा घर में बंद रहो, घर
में बंद दिमाग ख़राब हो जाता है, बाहर भी नहीं आ जा सकते, तुम लोग कम से कम रोज बाहर
तो आते जाते हो।"
विक्रेता
बोला :"साहब आप परेशान है कि घर में रहना पड़ता है मैं परेशान हूँ, मुझे बाहर निकलना
पड़ता है। मेरा परिवार गांव में रहता है पत्नी और दो बच्चे हैं। पत्नी मना करती है मत
जाओ सब्जी बेचने के लिए, महामारी फैली है। बीमार हो गए तो परेशानी हो जाएगी, काम भी
बंद हो जाएगा।” बोलते बोलते विक्रेता का गाला रुंध गया।
भरे हुए मन
से वो बोला: ”परिवार की जरूरते हैं खाना-पीना, बच्चो की पढाई, दवाइयां, और भी जरूरते
हैं उनको पूरा करने के लिए मुझे न चाहते हुए भी मज़बूरी में बाहर निकलना पड़ता है।
काम नहीं करूँगा तो खर्च कैसे
चलेगा। मेरे लिए तो बीमारी से ज्यादा बड़ी मेरी जिम्मेदारियाँ हैं। रोज सुबह चार(4)
बजे सब्जी मंडी जा कर सब्जी लाता हूँ दिन में सब्जी बेचता हूँ। लोग एक दूसरे से दूरी
बना कर रखते हैं, मैं न जाने कितने लोगो के संपर्क में आता हूँ। मेरी मर्जी तो घर के
अंदर सुरक्षित रहना है लेकिन मज़बूरी बाहर ले आती है।” बोलते बोलते उसकी आँखों में दर्द
छलक आया।
उसकी बाते
सुन कर कवि अंदर ही अंदर सोच में पड़ गया। मन शांत था, अंतरआत्मा में द्वन्द चल रहा
था। विक्रेता उसे सब्जी लेने के लिए बोल रहा था, लेकिन उसके कान कुछ भी सुन नहीं पा
रहे थे। उसके कदम घर की ओर खुद ही चल पड़े थे, जो मर्जी और मज़बूरी का मतलब और फर्क समझ
गए थे।
P.K.
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